काठमांडू में रहने वाले नरेश ज्ञावाली नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार हैं. राजधानी काठमांडू में सोमवार को शुरू हुए हिंसक विरोध-प्रदर्शन पर वो लगातार नजर बनाए हैं. एनडीटीवी ने उनसे बातचीत कर वहां के ताजा हालात की जानकारी ली और यह जानने की कोशिश की नेपाल अब किस दिशा में जा रहा है. पेश है नेपाल के हालात पर हुई उनसे बातचीत के संपादित अंश.

नई दिल्ली:

इस समय राजधानी काठमांडू की कोई भी ऐसी सड़क या गली नहीं है, जहां आग न जल रही है. हर तरफ प्रदर्शनकारियों ने अपना विरोध जताते हुए आगजनी की है. सोमवार को राजधानी काठमांडू से फैली चिनगारी ने अपनी नेपाल के बड़े हिस्से में पहुंच गई है. वो बताते हैं कि विरोध-प्रदर्शन की इस आग नेपाल के 77 में से 50 से अधिक जिलों को अपनी चपेट में ले लिया है. इस प्रदर्शन के बाद प्रधानमंत्री केपी शर्मा ओली ने अपने पद से इस्तीफा दे दिया है.

केपी ओली की निरंकुश सरकार?

ज्ञावाली के मुताबिक जनता नेपाल की राजनीतिक व्यवस्था से बहुत नाराज हैं. सोमवार के प्रदर्शन का प्रधानमंत्री केपी ओली की सरकार ने जिस तरह से दमन किया, उससे लोगों में आक्रोश है. वो इस सरकार को उखाड़ फेंकना चाहते हैं. नेपाली जनता सत्ताधारी दलों के साथ विपक्षी और सरकार को समर्थन दे रही नेपाली कांग्रेस से भी नाराज है. इसलिए वो सभी दलों के नेताओं, उनके कार्यालयों और उनकी संपत्तियों को निशाना बना रही है. ज्ञावाली कहते हैं कि 1950 में जनता ने राणाशाही के खिलाफ 19 दिन लंबा आंदोलन चलाया था. उस दौरान सुरक्षाबलों की गोलीबारी में केवल 23 लोगों की मौत हुई थी. लेकिन इस सरकार ने एक दिन में भी 19 लोगों की जनसंहार करवा दिया. इससे लोगों का आक्रोश चरम पर पहुंच गया. 

ज्ञावाली बताते हैं कि केपी ओली नेपाल के सबसे निरंकुश शासक हैं. इसे वो अपने कामकाज और बयानबाजी से साबित करते रहते हैं. वो बताते हैं कि नेपाल की राजनीतिक व्यवस्था से लोगों में काफी नाराजगी है, यह नाराजगी पिछले कुछ सालों में काफी बढ़ी है. अब इस नाराजगी ने हिंसक रूप ले लिया है. वो बताते हैं कि सोमवार को जब प्रदर्शन हो रहा था तो बहुत से युवा सेना की गाड़ियों के पहियों के नीचे लेट गए. उन्होंने सैनिकों से कहा कि सेना सीमा पर सुरक्षा के लिए हैं, यहां आएं हैं तो हम पर अपनी गाड़ी चढ़ा दें. लोगों का आक्रोश सबकुछ मिटा देने की कोशिश कर रहा है, इसमें वह नहीं देख रहा है कि सामने सत्ता पक्ष है या विपक्ष. 

नेपाली जनता का संघर्ष

वो बताते हैं कि नेपाल में हर 20-25 साल में इस तरह के आंदोलनों की परंपरा रहा है. नेपाली जनता इतने ही साल तक इंतजार करती है, उसके बाद वह सड़क पर उतर आती है. इसके लिए वो 1958-50 में राणाशाही के खिलाफ चलाए गए आंदोलन या संविधान के लिए हुए आंदोलन और माओवादियों के आंदोलन का उदाहरण देते हैं. ज्ञावाली कहते हैं कि माओवादियों के नेतृत्व में 2006 में राजतंत्र को हटाए जाने और लोकतांत्रिक नेपाल की शुरूआत के भी 20 साल हो चुके हैं. नेपाल की जनता एक बार फिर सड़कों पर है. 

वो कहते हैं कि लोकतंत्र की स्थापना के बाद नेपाल की जनता को बहुत उम्मीदें थीं. लोगों को लगता था कि लोकतंत्र में उनकी सुनी जाएगी. सरकार उनके लिए रोजगार की व्यवस्था करेगी, लोगों के पढ़ने की व्यवस्था करेगी और लोगों के स्वास्थ्य की देखभाल करेगी, उद्योग-धंधों का जाल बिछेगा. लेकिन 13 सरकारों के आने के बाद भी ऐसा कुछ भी नहीं हुआ. इससे लोगों में भारी नाराजगी है. 

श्रीलंका और बांग्लादेश की राह पर श्रीलंका

क्या नेपाल बांग्लादेश और श्रीलंका की राह पर चलेगा नेपाल, इस सवाल पर ज्ञावाली कहते हैं कि यह स्थिति अभी साफ नहीं है. वो कहते हैं कि लोगों की नाराजगी सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों से हैं. जनता यह नहीं चाहती है कि केपी शर्मा ओली के बाद विपक्ष का कोई नेता सत्ता संभाले. इसलिए मुझे दो तरह की संभावनाएं नजर आती हैं. पहली यह कि ओली के इस्तीफे के बाद अंतरिम व्यवस्था के रूप में सेना सत्ता संभाले और अपनी निगरानी में चुनाव करवाए. और दूसरी व्यवस्था यह हो सकती है कि चुनाव आयोग के नेतृत्व में कोई अंतरिम सरकार बने और वह सरकार नए चुनाव करवाए. ज्ञावाली बताते हैं कि नेपाल की जनता अब आमूल-चूल बदलाव चाहती है.

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