इस मन्दिर में शिव जी का विशाल लिंग है यह दो भागों में विभाजित है एक भाग को मां पार्वती व दूसरे भाग को भगवान शिव के रूप मे माना जाता है इस स्थान की यह विशेषता है कि इन दो भागों में के बीच का अन्तर ग्रहों व नक्षत्रों के अनुरुप घटता-बढ़ता है शायद यही विशेषता आदिकाल से चली आ रही है या आज के युग को अपना प्रत्यक्ष प्रमाण देते हुए भगवान ने ऐसी विशेषता अपनाई हो इस मंदिर का इतिहास दन्त कथाओं एवं किंवदंतियां के अनुसार पुराणों से जुड़ा हुआ है जैसे कि शिव पुराण में वर्णित कथानुसार श्री ब्रह्मा जी व विष्णु जी का आपस मे बड़प्पन के बारे मे युद्ध हुआ तो दोनों एक-दूसरे पर भयानक अस्त्रों शस्त्रो से प्रहार करने लगे तब भगवान शिव शंकर आकाश मण्डल छिपकर ब्रह्मा एवं विष्णु का युद्ध देखने लगें दोनों एक-दूसरे के वध की इच्छा से महेश्वर और पाशुपात अस्त्र का प्रयोग करने मे प्रयासरत थे क्योंकि इनके प्रयोग होते ही त्रैलोक्य भस्म हो जाता इस महाप्रलय रुप को देखकर भगवान शिव से रहा न गया
उनका युद्ध शांत करने के लिए भगवान शंकर महाग्नि तुल्य एक स्तम्भ के रूप में उन दोनों के बीच प्रकट हुए इस महाग्नि के प्रकट होते ही ब्रह्मा जी और विष्णु जी के अस्त्र-शस्त्र स्वयं शांत हो गये यह अदभुत दृश्य देखकर ब्रह्मा और विष्णु जी आपस मे कहने लगे कि यह अग्नि स्वरूप स्तंभ क्या है हमें इसका पता लगाना चाहिए
ऐसा निश्चय कर भगवान विष्णु जी शूकर का रुप धारण उस स्तंभ का मूल देखने के लिए पाताल की ओर चलें गये तथा ब्रह्मा जी ने हंस का रुप धारण कर आकाश की और गमन किया विष्णु जी पाताल मे बहुत दूर तक चले गए तो परन्तु जब बहुत समयोपरान्त भी स्तंभ के मूल का पता न चला तो वापिस चलें आए उधर ब्रह्मा जी आकाश से केतकी का फूल लेकर विष्णु जी के पास आएं तथा झूठा विश्वास दिलाया कि स्तंभ का शीर्ष मैं देख आया हूं जिसके ऊपर केतकी का फूल था तब भगवान विष्णु जी ने ब्रह्मा जी के चरण पकड़ लिए
ब्रह्मा जी के इस छल को देखकर भगवान शिव महादेव को साक्षात प्रकट होना पड़ा और विष्णु जी ने उनके चरण पकड़ लिए विष्णु जी इस महानता से शिव महादेव जी प्रसन्न हो गए उन्होंने कहा कि हे विष्णु तुम बड़े सत्यवादी हो अतः मैं तुम्हें अपनी समानता प्रदान करता हूं ब्रह्मा तथा विष्णु जी के मध्य हुए युद्ध को शांत करने के लिए भगवान शिव को महाग्नि तुल्य स्तंभ के रूप मे प्रकट होना पड़ा यही काठगढ़ महादेव विराजमान शिवलिंग जाना जाता है

यहां पर भरत द्वारा पूजा अर्चना
प्राचीन प्रचलित गाथाओं के अनुसार इस काठगढ़ महादेव का ऐतिहासिक महत्व रामायण काल से भी है कि प्रभु श्री राम के भाई भरत जी जब कैकेय देश(कश्मीर) अपने ननिहाल आते-जाते थे तो इस पावन स्थान पर स्वयं भू शिवलिंग की पूजा अर्चना करते थे क्योंकि अयोध्या से आते हुए वर्तमान मीरथल गांव के पास से ही इस स्थान से कैकेय देश को मार्ग जाता था कहा जाता है कि भरत जी बड़े शिव भक्त थे वे यहां के पवित्र जल से स्नान करने के उपरान्त अपने राजपुरोहित व मंत्रियों के साथ इस आद शिवलिंग की पूजा अर्चना करते थे

सिकन्दर का वापिसी स्थल
ऐतिहासिक तौर पर प्रसिद्ध विश्व विजेता मकदूनिया के राजा सिकन्दर का इस मन्दिर के साथ सम्बन्ध जुड़ा हुआ है जन श्रुतियों के अनुसार सिकन्दर इस देव स्थान से वापिस चला गया था बताया जा रहा है कि मार्च 326 ई, पू ओहिन्द के निकट नावों के पुल से सिन्धु नदी पार कर भारत पर आक्रमण किया उस समय पंजाब तथा सिन्ध मे अनेक छोटे छोटे राज्य थे जो आपस मे द्वेष की भावना रखते थे इनमें से कुछ राजतंत्र कुछ गणराज्य तथा कुछ नगर राज्य थे
सिकन्दर का अन्तिम कैम्प व्यास नदी के किनारे लगा माना जाता है जो सम्भवत मीरथल के पास है व्यास नदी की और बढ़ते हुए सिकन्दर ने इन कम ऊंची पहाड़ियों को छुआ उसने सम्भवतः जो मार्ग अपनाया वह अखनूर से साम्बा शंकरगढ़ मीरथल की और जाता है यूनानी आक्रमणकारी का भारत विजय अभियान व्यास नदी के किनारे आकर ठण्डा पड़ गया क्योंकि यहां के लोगों की देश-प्रेम तथा वीरता को देखते हुए उसके सैनिकों आगे बड़ने से इंकार कर दिया परिणामस्वरूप सिकंदर को अपनी योजना को बदलना पड़ा कहा जाता है कि उस समय विश्व विजेता सिकन्दर की सेनाओं का पड़ाव काठगढ़ मे ही था प्रात काल वह जब सो कर उठा तो गूढ़ विचारों मे खो गया उसके मस्तिष्क मे यह विचार घर कर गया कि मेरे बहादुर सैनिकों ने इतना विस्तृत विश्व जीतने पर इस स्थान पर आकर आगे बढ़ने से जो इंकार किया है वह इस शिव लिंग की दैविक महानता के कारण हुआ है इस लिए इस शिव लिंग के चारों और की जगह को समतल करके मोटी चारदीवारी बनवाईं बैठने के लिए व्यास नदी की ओर चार दीवारी के कोनो पर अष्टकोणीय चबूतरे बनायें ताकि यात्री यहां से व्यास का प्राकृतिक नैसर्गिकता का आनन्द अनुभव कर सकें तथा यूनानी सभ्यता की छाप स्थापित की जावे ताकि आने वाली पीढ़ियों को इस स्थान को सिकन्दर की वापसी स्थल के रूप मे स्मरण करती रहें जोकि आज भी मौजूद है

महाराज रणजीत सिंह द्वारा महादेव मंदिर का निर्माण
इस पावन देश स्थान की पूजा अर्चना वैदिक काल से होती आई है परन्तु यह स्वयं भू प्रकट शिवलिंग खुले आकाश में सर्दी गर्मी को सहन करते हुए श्रद्धालुओं को आशीर्वाद देते रहे ज्योंहि परम धर्मा हिन्दू सिख समानता के प्रतीक महाराज रणजीत सिंह जी ने राजगद्दी संभाली तो अपने सम्पूर्ण राज्य में भ्रमण किया तथा राज्य सीमा के अन्तर्गत आने वाले सभी धार्मिक स्थलों के सुधार के लिए सरकारी कोष से सेवा करने का संकल्प लिया इस आद शिवलिंग के दर्शन करके महाराज रणजीत सिंह जी का ह्रदय प्रफुल्लित हो गया उन्होंने तुरंत इस आद शिवलिंग पर शिव मंदिर बनवाकर विधिपूर्वक पूजा अर्चना की कहा जाता है कि इस स्थान के निकट प्राचीन कुएं का जल महाराज रणजीत सिंह अपने काल में शुभ कार्य प्रारंभ करने के लिए यहां से मंगवाते थे क्योंकि यह जल बड़ा पावन व रोग निवारक माना जाता रहा है कई साधु महात्मा इस देव स्थल को तान्त्रिक स्थान मानते हैं उनका कथन हैं की यह विशाल शिवलिंग अष्टकोणीय है मुख्य मन्दिर, समीपवर्ती कुआं व बड़ी समाधि तथा परिक्रमा में बना हुआ चबूतरा अष्टकोणीय है यह शिव मंदिर एक पहाड़ी पर स्थित है और मन्दिर की कुछ दूरी पर छौछ खड्ड पश्चिम दिशा की और बहती है दक्षिण दिशा मे व्यास नदी आकषर्क व मनोहारी दृश्य दर्शाती हुई एक दूसरे में विलीन हो जाती है इस मन्दिर के प्रागंण मे खड़े होकर दूर दूर तक मैदानी भू भाग दिखाई देता है जिसका भक्तजन आनन्द लेते हुए तथा प्रभु चरणों मे श्रद्धा सुमन भेंट करते हुए अपने भावी जीवन को सफल करने की कामना करते है इस देव स्थान की पवित्रता व महत्ता एवं शक्ति के अनुरूप ही इसकी मान्यता व प्रसिद्धि दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है

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